तेज़ हवा अपने साथ पास की ही बड़ी खदान से धूल लेकर आ रही है. सूरज की किरणें आसमान से सीधे सर पर आ रहीं हैं. छांव की तलाश करते यहां मौजूद लोग उन पेड़ों के नीचे सहारा ढूंढ रहे हैं जो अब तक बचे हुए हैं. ये दिन का वो पहर है जब अपनी परछाई भी नहीं नज़र आ रही है.
जगह-जगह कटे हुए पेड़ पड़े हैं. ऐसा लग रहा है मानो आप पेड़ों के किसी श्मशान में पहुंच गए हों. आसपास जमा आदिवासी महिलाएं और पुरुष ग़मगीन हैं.
एक पेड़ की छांव में कुछ आदिवासी महिलाएं बैठी हुईं हैं. इनमें से एक हैं मीरा. हमें देखते ही वो कटे हुए पेड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहतीं हैं, “देखिये साहेब, पेड़ों को मार के गिरा दिया है. इसे मरघट बना दिया है.”
ये उत्तरी छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य का इलाक़ा है जो 1 लाख 70 हज़ार हेक्टेयर में फैला हुआ है. जहां आदिवासी बैठे हैं ये इलाक़ा बिलकुल ‘परसा ईस्ट केटे बासेन कोयला परियोजना’ के पहले ‘फेज़’ की खादान से लगा हुआ है.
कोयला निकालने के लिए रह-रह कर तीन विस्फोटों से इलाक़ा दहलने लगा है. विस्फोटों की वजह से उड़ी धूल और बारूद की गंध को तेज़ हवाएं पूरे फ़िज़ा में फैला रही है.
लोग अपने सरों और नाक को ढक रहे हैं. कुछ छांव की तलाश कर रहे हैं. चिलचिलाती धूप में छांव की एहमियत सबको समझ में आती तो है, मगर फिर भी इन पेड़ों का काटना ज़रूरी बताया जा रहा है क्योंकि इनके नीचे कोयले के प्रचुर भंडार मौजूद है.
राजस्थान और छत्तीसगढ़ में विद्युत् आपूर्ति के लिए इस कोयले की बेहद आवश्यकता है. इसलिए ‘परसा ईस्ट केटे बासेन कोयला परियोजना’ के दूसरे चरण के खनन को मंज़ूरी भी दे दी गयी है.
राजस्थान सरकार ने कोयले को निकलने का क़रार गुजरात की एक कंपनी से किया है. खनन के लिए मंज़ूरी केंद्र और राज्य सरकारों दी है. यानी अब परियोजना के दूसरे चरण के लिए ज़मीन के अधिग्रहण का काम भी चल रहा है और पेड़ों की कटाई का काम भी शुरू कर दिया गया है.