यूपी में वर्ष 2007 से आईं तीनों सरकारों के पास शोकेस करने के लिए एक-एक एक्सप्रेस-वे है, लेकिन यमुना एक्सप्रेस-वे मायावती को और लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे अखिलेश यादव को सूबे की सत्ता तक का सफर दोबारा नहीं करवा पाई। देश के सबसे बड़े 341 किलोमीटर लम्बे पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के साथ भाजपा सरकार भी अपने पूर्ववर्ती दो सरकारों की तरह सड़क से सत्ता तक का सफर तय करने की कोशिश में है। देखना है कि पिछली दो सरकारों को बदलने का ट्रेंड बरकरार रहता है या इस बार भाजपा ट्रेंड को बदलने में सफल रहती है।
क्या कहता है पूर्वांचल का गणित
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के 26 जिलों में 156 विधानसभा सीटें हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को यहां 106 सीटों पर सफलता मिली थी, जबकि तब सपा के खाते में 18 और बसपा के खाते में 12 सीटें आई थीं। यहां कांग्रेस से बेहतर प्रदर्शन अपना दल का था, जिन्होंने भाजपा के साथ गठबंधन में 8 सीटों पर चुनावी सफलता पाई थी। जबकि कांग्रेस के खाते में महज 4 सीटें थीं। 2019 में भी यही ट्रेंड देखने को मिला। इस क्षेत्र की 29 लोकसभा सीटों में भाजपा पर 22 प्रत्याशी चुनाव जीत गए। समाजवादी पार्टी और बसपा गठबंधन को 6 सीटों पर से संतोष करना पड़ा।
पूर्वांचल की राजनीति के लिए कितना महत्वपूर्ण है यह एक्सप्रेस वे? इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ स्तंभकार और गोरखपुर विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के अस्टिटेंट प्रोफेसर डॉ. महेंद्र सिंह कहते हैं, ‘यह एक्सप्रेस वे उत्तर प्रदेश के उन जिलों को राजधानी से जोड़ रहा है, जो सबसे पिछड़े हैं। यहीं से सबसे अधिक पलायन होता है। असल में यूपी में सबसे पहला एक्सप्रेस वे पूर्वांचल में बनना चाहिए था, लेकिन इसकी शुरुआत नोएडा से हुई।’ वे आगे कहते हैं ‘पिछली दो सरकारों ने जाति और धर्म की राजनीति करने के साथ-साथ एक्सप्रेस वे को विकास के एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया, लेकिन उसे प्रदेश की अर्थव्यवस्था के साथ नहीं जोड़ा। उनका मकसद तब जनता को यह संदेश देना था कि देखिए हम प्रदेश के विकास के विषय में भी सोचते हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ की सरकार इस मामले में उनसे अलग है। इस सरकार में इसे इंडस्ट्रियल कॉरीडोर से जोड़ने की बात चल रही है।’