बात 1983 की है। हिमाचल प्रदेश की वादियों में गुलाबी सर्दी थी लेकिन शिमला से लेकर दिल्ली तक सियासी गलियारों में राजनीतिक गर्मी छाई हुई थी। तब राज्य के मुख्यमंत्री थे ठाकुर राम लाल। उनकी सरकार कई विवादों और लकड़ी घोटालों का दाग झेल रही थी। इस घोटाले की आंच दिल्ली तक पहुंच चुकी थी। नतीजतन केंद्रीय नेतृत्व के निर्देश पर ठाकुर राम लाल ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
जब तत्कालीन केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री एचकेएल भगत ने केंद्रीय नेतृत्व द्वारा ठाकुर राम लाल की इस्तीफा स्वीकार करने की सूचना दी, तो उस वक्त 2000 से अधिक कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने पार्टी दफ्तर के बाहर नारेबाजी कर सत्ता परिवर्तन का स्वागत किया था।
अब पार्टी के सामने राज्य के नए मुख्यमंत्री के लिए पार्टी विधायक दल के नए नेता का चुनाव करना एक टेढ़ी खीर साबित हो रही थी। उस वक्त कांग्रेस के 33 विधायक थे। विधायक दल की बैठक में 33 विधायकों मे से किसी ने भी राम लाल के प्रति एक शब्द की सहानुभूति नहीं दिखाई थी। हालांकि, उनके करीबी मंत्री शिव कुमार ने लाल सरकार के 1,048 दिनों के कार्यकाल की सराहना करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसे स्वीकार कर लिया गया।
अपने खिलाफ ऐसी बेरुखी देख ठाकुर राम लाल ने तभी कांग्रेस विधायक दल की बैठक में वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव रख दिया जो एचकेएल भगत ने बड़ी चतुराई से उनसे पेश करवाया था। सीएम पद के प्रबल दावेदार माने जा रहे राज्य के तत्कालीन लोक निर्माण मंत्री सुखराम को वीरभद्र सिंह के नाम का समर्थन करना पड़ा था। इसके एक घंटे के बाद ही वीरभद्र सिंह ने राज्य के पांचवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले ली थी। वह दिन था 8 अप्रैल, 1983 का।
वीरभद्र सिंह उस वक्त हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सदस्य नहीं थे। वह केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार में केंद्रीय उद्योग राज्यमंत्री थे और लोकसभा के सदस्य थे। इस पद के दावेदारों में तब सुखराम के अलावा ठाकुर राम लाल के ही दो करीबी शिव कुमार और बिजेंदर सिंह थे। सुखराम सीएम राम लाल के घोर विरोधी थे और उन्हें हटाकर खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन एचकेएल भगत ने वीरभद्र सिंह की ताजपोशी करवा दी थी।