रिपोर्ट :- खुशबू मिश्रा
Japanese Government ने देश में मुस्लिमों के लिए नए कब्रिस्तानों हेतु जमीन देने से साफ इनकार कर दिया है। सरकार का कहना है कि जापान में भूमि की कमी है और 99 % से अधिक अंतिम संस्कार दाह-संस्कार (cremation) के रूप में होते हैं। यह फैसला देश में रह रहे प्रवासी मुस्लिमों और नागरिकता प्राप्त मुस्लिमों के लिए एक बड़ा झटका बन गया है।
पिछले कुछ वर्षों में जापान में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है, लेकिन अब उनके लिए अंतिम संस्कार से जुड़ी धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करना मुश्किल होता जा रहा है। 2025 के अंत तक, मीडिया रिपोर्टों में यह खुलासा हुआ है कि जापान सरकार ने मुस्लिमों द्वारा कब्रिस्तान स्थापित करने की मांग ठुकरा दी है।

सरकार का रुख: भूमि की कमी और सांस्कृतिक परंपरा
सरकार के अनुसार, जापान के बड़े शहरों में ज़मीन की गंभीर कमी है, जिसके कारण नए, बड़े कब्रिस्तान बनाना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। इसके अलावा, जापान में धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से शवदाह (cremation) के साथ एक दशक-पुरानी परंपरा जुड़ी हुई है। रिपोर्टों के अनुसार, यहां 99 % से अधिक अंतिम संस्कार दाह संस्कार के माध्यम से होते हैं, जिससे दफनाए जाने वाले शवों के लिए जमीन की मांग की स्वीकार्यता कम है।
इसलिए सरकार का सुझाव है कि यदि मुस्लिमों की सांस्कृतिक या धार्मिक भावना को पूरा करना है, तो शवों को उनके मूल देश में भेजकर दफनाया जाए — न कि जापान में भूमि उपलब्ध कराई जाए।

मुस्लिम समुदाय के लिए चुनौतियाँ
यह फैसला जापान में रहने वाले मुसलमानों के लिए कई समस्याएँ पैदा करता है:
- कई मुस्लिम परिवारों का जन्म, जीवन और सामाजिक जुड़ाव जापान से है — “मूल देश” की अवधारणा उनके लिए मायने नहीं रखती। उन्हें अपने पुराने रिश्तेदारों को विदेश भेजने में भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
- दफनाने में देरी या विदेश भेजने की जटिलता के कारण परिवारों को मानसिक आघात भी हो सकता है।
- सीमित संख्या में उपलब्ध कब्रिस्तानों (ऐसी रिपोर्टें बताती हैं कि जापान में मुस्लिमों/अल्पसंख्यकों के लिए बहुत कम कब्रिस्तान हैं) के कारण सफर और इंतजार की प्रक्रिया काफी मुश्किल हो जाती है।
एक बार जब बड़ी मुस्लिम आबादी के अंतिम संस्कार की जरूरतें बढ़ती हैं, तो सिर्फ मौजूदा कब्रिस्तानों की संख्या और उनकी दूरी — दोनों ही समस्या बनते हैं।

सांस्कृतिक टकराव — परंपरा बनाम धार्मिक आज़ादी
यह विवाद सिर्फ जमीन की कमी या इंतजाम की समस्या नहीं है — बल्कि यह सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक आज़ादी का सवाल है। जापान में बौद्ध और शिंटो धार्मिक परंपराएं गहराई से जुड़ी हैं, जिनमें शवदाह सामान्य तरीका है। दूसरी ओर, इस्लाम में दफनाना अनिवार्य माना जाता है, और शवदाह जैसे रीति-रिवाज पर आमतौर पर रोक है। इस प्रकार, देश की बहुसंख्यक धार्मिक परंपरा और अल्पसंख्यक धार्मिक जरूरतों के बीच टकराव स्पष्ट हो जाता है — जिस पर इस समय बहस तेज हो चली है।

क्या यह बहुसांस्कृतिक समाज के लिए चुनौती है?
जापान खुद को धीरे-धीरे बहुसांस्कृतिक समाज के रूप में ढालने की ओर बढ़ रहा है, विशेषकर विदेशियों, श्रमिकों, छात्रों और नई पीढ़ियों के साथ। मगर यह मामला दिखाता है कि सिर्फ आर्थिक या रोजगार संबंधी समावेश से काम नहीं चलता — धार्मिक और सांस्कृतिक जरूरतों के लिहाज से भी संवेदनशीलता और समावेशी नीतियों की ज़रूरत है। यदि सरकार वास्तव में विविधता को स्वीकार करती है, तो अल्पसंख्यकों की धार्मिक आज़ादी और मर्यादा सुनिश्चित करना चाहिए। मौजूदा रुख न सिर्फ मुस्लिमों की धार्मिक आज़ादी को प्रभावित करता है, बल्कि यह इस बात पर भी सवाल खड़ा करता है कि भविष्य में बहुसांस्कृतिक-जापान कितनी स्वीकार्यता दे पाएगा।
यह मामला सिर्फ जमीन या कब्रिस्तान का नहीं है — यह न्याय, धार्मिक आज़ादी, इंसानियत और सांस्कृतिक बहुलता का सवाल है। यदि किसी देश में अल्पसंख्यक रहने आते हैं, तो उनके धर्म, रीति-रिवाज और सांस्कृतिक पहचान का सम्मान करना लोकतांत्रिक और मानवीय जिम्मेदारी है। अगर जापान जैसी विकसित लोकतंत्रों में इस तरह की चुनौतियाँ आती हैं, तो यह उन सभी देशों के लिए एक चेतावनी है — कि विकास, आधुनिकता और विविधता के बीच संतुलन बनाए रखना आसान नहीं, लेकिन जरूरी है।