सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील मुजफ्फरनगर की राजनीति की छाप पूरे उत्तर प्रदेश पर दिखाई पड़ती है। मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद हुए तीन चुनावों में तो ऐसा ही हुआ है। किसान आंदोलन के बाद जाट और मुसलमानों को एक बार फिर एकजुट करके गन्ना बेल्ट में जीत की मिठास चखने की आस लगाए समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के लिए नई चुनौती खड़ी हो गई है। गठबंधन की ओर से मुजफ्फरनगर में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारे जाने से अल्पसंख्यक समुदाय में असंतोष की भावना उपज रही है।
मुस्लिम समुदाय के लोगों का कहना है कि पिछले दो सालों से रालोद के नेता जाट और मुस्लिम समुदाय में भाईचारे की बात कर रहे हैं, किसान आंदोलन के दौरान भी एकता की अपील की गई, लेकिन इसके बावजूद उम्मीदवारों के चयन के समय मुसलमानों को नजरअंदाज किया गया।
मुजफ्फरनगर के प्रमुख मुस्लिम नेता कादिर राणा, मुरसालीन राणा, लियाकत अली जैसे कई नेता जो चुनाव लड़ना चाहते थे वे अब निराश हैं। समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता और पूर्व सांसद अमीर आलम ने कहा, ”मुद्दा यह नहीं है कि मुस्लिम उम्मीदवार दिया गया या नहीं, मुद्दा यह है कि सांप्रदायिक ताकतों को कैसे हराया जाए।” स्थानीय नेता फैजल सैफई ने कहा, ”मुस्लिम नेताओं को टिकट नहीं दने से समाजवादी पार्टी को भारी नुकसान होगा। एआईएमआईएम और बीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों को फायदा हो सकता है।”
टिकट की आस लगाए बैठे थे कई मुस्लिम नेता
इस बार पूर्व सांसद अमीर आलम रालोद से अपने पुत्र नवाजिश आलम के लिए तो पूर्व सांसद कादिर राना भी स्वयं अपने लिए या अपने बेटे के लिए टिकट के दावेदार थे। इसी कारण वह बसपा छोड़कर अक्टूबर में सैंकड़ों समर्थकों के साथ सपा में शामिल हुए थे। टिकट की चाह में पूर्व विधायक नूरसलीम राना ने लोकदल का दामन थामा था। वहीं पूर्व विधायक शाहनवाज राना भी रालोद से मुजफ्फरनगर या बिजनौर में टिकट की लाइन में थे। सपा रालोद गठबंधन ने जिले में किसी भी मुस्लिम नेता के नाम पर विचार तक नही किया। बहुत वर्षो बाद यह ऐसा चुनाव होगा जिसमें स्थापित मुस्लिम नेता चुनाव लड़ता हुआ नजर नही आएगा।