उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने समाजवादी पार्टी कैसे मात दी? कैसे सपा के तमाम समीकरण भगवा दल की रणनीति के सामने फीके पड़ गए? मुकाबले को 80:20 और 15:85 खांचे में बांटने की तमाम कोशिशों का किसे कितना फायदा हुआ और कितना नुकसान? इस तरह के तमाम सवालों के जवाब आंकड़ों के विश्लेषण से मिलने लगे हैं।
सीएसडीएस की ओर से दिए गए आंकड़ों की मानें तो पश्चिम यूपी में जयंत चौधरी की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) से गठबंधन का सपा को अधिक फायदा नहीं मिला। जाट वोटर्स को ध्यान में रखकर किए गए इस गठबंधन के बावजूद 2017 के मुकाबले साइकिल की सवारी करने वाले जाटों की संख्या कम हो गई। यूपी की कुल आबादी में 2 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले जाट वोटर्स की पहले और दूसरे फेज में खूब चर्चा हुई। सपा को 2017 में जहां 57 फीसदी जाट वोट मिले तो इस बार महज 33 फीसदी वोट मिले हैं। वहीं भाजपा को 2017 में 38 जाटों का साथ मिला था तो इस बार 54 फीसदी जाटों ने कमल के निशान को चुना। यही वजह है कि तमाम दावों के बावजूद भाजपा पश्चिमी यूपी में एक बार फिर सबसे आगे निकल गई।
स्वामी के जाने से बीजेपी को नुकसान नहीं, सपा को मामूली फायदा
चुनाव से ठीक पहले जब स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी और दारा सिंह चौहान जैसे ओबीसी नेताओं ने योगी कैबिनेट से इस्तीफा देकर सपा का दामन थामा तो माना गया कि इसका बीजेपी को बड़ा नुकसान हो सकता है। लेकिन बीजेपी ने टिकट वितरण में ओबीसी उम्मीदवारों तरजीह देकर स्वामी फैक्टर को पूरी तरह ना सिर्फ ध्वस्त किया बल्कि वोट बेस में भी इजाफा कर लिया। सीएसडीएस की रिपोर्ट कहती है कि इस बार बीजेपी को 64 फीसदी कोइरी, मौर्य, कुशवाहा और सैनी वोटर्स ने चुना, जबकि 2017 में स्वामी के साथ रहते पार्टी को इन जातियों के 56 फीसदी लोगों ने वोट दिया था। वहीं सपा को जहां 2017 में इन जातियों के 18 फीसदी वोट मिले थे तो इस बार यह आंकड़ा बढ़कर 22 फीसदी ही हुआ। अन्य ओबीसी जातियों की बात करें तो बीजेपी 62फीसदी वोट मिले तो सपा को महज 23 फीसदी वोट मिले।
सपा के पक्ष में मुस्लिम गोलबंदी
सीएसडीएस का पोस्ट पोल सर्वे बताता है कि इस चुनाव में मुसलमानों ने लगभग एकतरफा सपा के पक्ष में मतदान किया। सपा को 5 साल पहले 46 फीसदी मुसलमानों ने वोट दिया था तो इस बार उसे अल्पसंख्यक समुदाय के 79 फीसदी वोट मिले। बसपा को 2017 में जहां 19 फीसदी मुस्लिम वोट मिले थे तो इस बार महज 6 फीसदी मुस्लिम हाथी के साथ रहे। भाजपा को भी 2 फीसदी अधिक मुस्लिम वोट मिले। भगवा दल को 5 साल पहले 6 फीसदी मुस्लिम वोट मिले तो इस बार 8 फीसदी अल्पसंख्यकों ने भाजपा में अपना भरोसा जताया।