रिपोर्ट :- खुशबू मिश्रा
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है, जिसने वयस्कों के बीच सहमति से बने रिश्तों और उनके समाप्त होने के बाद लगाए जाने वाले आपराधिक आरोपों पर गहरी स्पष्टता प्रदान की है। कोर्ट ने कहा कि यदि कोई रिश्ता शुरुआत से ही पारस्परिक सहमति पर आधारित था, उसमें न तो दबाव था, न ज़बरदस्ती और न ही किसी प्रकार का छल, तो उसके समाप्त होने को बलात्कार का आधार नहीं बनाया जा सकता। यह फैसला ऐसे मामलों के लिए महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन देता है, जहाँ भावनात्मक विवादों के बाद आपराधिक कानून का गलत इस्तेमाल होने की आशंका रहती है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला वयस्कों के निजी रिश्तों, सहमति और आपराधिक कानूनों के दुरुपयोग पर एक बेहद अहम टिप्पणी है। अदालत ने कहा कि यदि एक बालिग पुरुष और महिला के बीच रिश्ता पूर्णतः सहमति से बना था, और उस सहमति को प्राप्त करते समय कोई धोखा, झूठा वादा या दबाव इस्तेमाल नहीं किया गया था, तो ऐसे रिश्ते का टूटना रेप के आरोप का आधार नहीं बन सकता।

यह निर्णय उस मामले में आया, जिसमें औरंगाबाद के एक वकील के खिलाफ एक शादीशुदा महिला ने तीन साल चले संबंध के समाप्त होने पर बलात्कार का मामला दर्ज कराया था। जांच और रिकॉर्ड में यह साफ़ था कि संबंध उनकी पारस्परिक सहमति से बना था और लंबे समय तक दोनों ने स्वेच्छा से इसे निभाया। इसीलिए अदालत ने केस को निरस्त करते हुए कहा कि रिश्तों के बिगड़ने को आपराधिक रंग नहीं दिया जा सकता।
सहमति और धोखे के बीच स्पष्ट रेखा
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जोर देकर कहा कि सहमति (Consent) और विश्वासघात (Breach of Trust) के बीच कानूनी तौर पर महत्वपूर्ण अंतर है। यदि कोई महिला या पुरुष किसी संबंध में इसलिए शामिल होता है क्योंकि उसने अपने साथी पर भरोसा किया, और बाद में रिश्ता बिगड़ जाता है या साथी अपने वादे पूरे नहीं कर पाता, तो यह कानून की नजर में ‘धोखा देकर सहमति लेना’ नहीं माना जा सकता।

धारा 376 (रेप) तब लागू होती है जब सहमति छल से, ज़बरदस्ती या झूठे वादे से हासिल की गई हो। लेकिन जब दो वयस्क बराबरी के स्तर पर, अपनी इच्छा से, लंबे समय तक संबंध में रहें, तो बाद में उत्पन्न मतभेदों को आपराधिक रूप से नहीं देखा जा सकता।
कानून का दुरुपयोग रोकने की दिशा में मजबूत कदम
अदालत ने कहा कि आपराधिक कानून, खासकर रेप जैसे गंभीर अपराध की धाराएँ, किसी भी भावनात्मक असंतोष या निजी विवाद को सुलझाने का साधन नहीं बन सकतीं। न्यायालय ने चेताया कि यदि ऐसे आरोपों को बिना पर्याप्त कानूनी आधार के मान लिया जाए, तो यह कानून के दुरुपयोग की बड़ी संभावना पैदा कर सकता है।

इस फैसले का व्यापक महत्व इसलिए भी है क्योंकि हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहाँ सहमति से बने रिश्तों के बाद विवाद उत्पन्न होने पर एक पक्ष द्वारा दूसरे पर गंभीर आरोप लगाए गए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्पष्ट किया कि कानून को पीछे की तारीख (retrospectively) से लागू नहीं किया जा सकता—अर्थात बाद में रिश्ता टूटने के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि पहले की सहमति अमान्य थी।
न्यायालय का यह फैसला उस विकसित होते न्यायशास्त्र का हिस्सा है जो वयस्कों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजी संबंधों की स्वायत्तता की रक्षा करता है। अदालत लगातार यह रेखांकित कर रही है कि दो सहमत वयस्कों के रिश्ते को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जब तक कि उसमें सहमति को पाने के लिए कोई तरह का छल, दबाव या धमकी इस्तेमाल न किया गया हो।