कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक अहम और मानवीय फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया है कि विधवा महिलाओं को उनके पति की नौकरी पर दयात्मक नियुक्ति (Compassionate Appointment) देने में उम्र कोई बाधा नहीं बन सकती। इस फैसले ने न केवल 48 वर्षीय महिला के परिवार के लिए राहत दी, बल्कि देशभर के कई परिवारों के लिए उम्मीद की किरण भी जलाई है।

मामला क्या था?
एक 48 वर्षीय विधवा महिला ने अपने पति की नौकरी पर दयात्मक नियुक्ति के लिए आवेदन किया था। सरकारी नियमों के तहत उम्र सीमा का हवाला दिया गया और आवेदन को रिजेक्ट कर दिया गया। महिला ने न्याय के लिए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
हाई कोर्ट का आदेश
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि दयात्मक नियुक्ति का मूल उद्देश्य परिवार को आर्थिक सहारा देना है, न कि नियमों की औपचारिकताओं में उलझाना। अदालत ने कहा कि उम्र सीमा को इस तरह के मामलों में बाधा नहीं बनाया जा सकता। कोर्ट ने विभाग को निर्देश दिया कि इस महिला को दयात्मक नियुक्ति प्रदान की जाए और भविष्य में ऐसे मामलों में मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाए।

मानवीय दृष्टिकोण का महत्व
इस फैसले ने यह संदेश दिया है कि कानून और प्रशासनिक नियमों का उद्देश्य सिर्फ़ औपचारिकताएँ पूरी करना नहीं है, बल्कि समाज में जरूरतमंद और आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की मदद करना भी है। ऐसे फैसले समाज में न्याय और समानता की भावना को मजबूत करते हैं।
क्या सरकार ने नया नियम बनाया?
ध्यान देने वाली बात यह है कि यह पूरी तरह से कोर्ट का आदेश है। सरकार ने अभी तक इस पर कोई नया नियम लागू नहीं किया है, लेकिन यह फैसला प्रशासनिक नीति में बदलाव की दिशा में अहम कदम माना जा रहा है।
निष्कर्ष
कर्नाटक हाई कोर्ट का यह निर्णय न केवल विधवा महिलाओं के लिए एक बड़ी राहत है, बल्कि समाज में मानवीय दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाला भी है। यह फैसला उन परिवारों के लिए प्रेरणा है, जिन्हें प्रशासनिक बाधाओं के कारण अपने अधिकार नहीं मिल पा रहे थे।