महुआ डाबर नरसंहार: 1857 की वह भूली हुई कहानी जिसे इतिहास ने मिटा दिया

भूमिका

महुआ डाबर नरसंहार 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास का वह अध्याय है, जिसे अंग्रेज इतिहासकार “Sepoy Mutiny” कहकर छोटा करने की कोशिश करते रहे, लेकिन भारत के लिए यह आज़ादी की पहली बड़ी जंग थी। मेरठ से शुरू हुई यह क्रांति पूरे उत्तर भारत में फैल गई। झांसी, कानपुर, लखनऊ, बरेली, अलीगढ़ जैसे बड़े केंद्रों के साथ-साथ कुछ छोटे गांव और कस्बे भी इस आग में जल उठे।
उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले का महुआ डाबर ऐसा ही एक गाँव था, जिसने न केवल अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया, बल्कि इसकी कीमत भी बहुत भारी चुकाई — अपने पूरे अस्तित्व के मिट जाने की कीमत।

महुआ डाबर नरसंहार का परिचय

महुआ डाबर नरसंहार उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में स्थित महुआ डाबर गाँव 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अपने असाधारण बलिदान के लिए जाना जाता है। यह गाँव उस समय समृद्ध, सांस्कृतिक रूप से संपन्न और व्यापार का स्थानीय केंद्र था। यहाँ के लोग खेती-बाड़ी, पशुपालन और व्यापार में अग्रणी थे।

लेकिन 3 जुलाई 1857 को ब्रिटिश फौज ने इस गाँव को इस तरह मिटा दिया कि वह इतिहास में लगभग गुम हो गया।

महुआ डाबर नरसंहार: 1857

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और बस्ती क्षेत्र की भूमिका

1857 का विद्रोह केवल मेरठ, कानपुर या झाँसी तक सीमित नहीं था। बस्ती जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों ने भी इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। महुआ डाबर उस समय विद्रोहियों का एक प्रमुख ठिकाना था। यहाँ से अंग्रेजी हुकूमत को खुली चुनौती दी जाती थी और विद्रोही सेनानियों को आश्रय दिया जाता था।


3 जुलाई 1857 – वह काली रात

ब्रिटिश अधिकारियों को पता चला कि महुआ डाबर के लोग विद्रोह में शामिल हैं और उन्होंने कई अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया है। इस खबर के बाद ब्रिटिश सेना ने गाँव को चारों ओर से घेर लिया।

3 जुलाई की रात, अंग्रेजों ने घर-घर आग लगा दी। जो भी भागने की कोशिश करता, उसे गोली मार दी जाती। बच्चे, बुजुर्ग, महिलाएँ – कोई भी बख्शा नहीं गया। कुछ ही घंटों में लगभग 5,000 की आबादी वाला यह गाँव राख में बदल गया।


ब्रिटिश सत्ता का क्रूर बदला

इस नरसंहार के बाद ब्रिटिश सत्ता ने केवल गाँव के लोगों को नहीं मारा, बल्कि गाँव के नाम और अस्तित्व को भी मिटा दिया। महुआ डाबर को राजस्व रिकॉर्ड में “ग़ैर-चिरागी” घोषित कर दिया गया, जिसका मतलब था कि यहाँ दोबारा कभी खेती या बसावट नहीं होगी।


इतिहास से नाम मिटाने की साजिश

ब्रिटिश अधिकारियों ने साजिशन इस नरसंहार को इतिहास से मिटा दिया। नक्शों से गाँव का नाम हटा दिया गया और उसी नाम का एक नया गाँव 50 मील दूर बसाकर असली जगह को भुला देने की कोशिश की गई।


मौखिक परंपरा से बची यादें

क्योंकि यह घटना इतिहास की किताबों में दर्ज नहीं हुई, इसलिए इसकी याद केवल पीढ़ियों से चली आ रही लोककथाओं, गीतों और बुजुर्गों की कहानियों में जीवित रही।

बस्ती के लोकगीतों में आज भी गाया जाता है –
“उस रात आग इतनी भड़की कि मनोहरा नदी तक रो पड़ी।”


2010 की खुदाई और सच्चाई का उजागर होना

लखनऊ विश्वविद्यालय के पुरातत्वविदों ने 2010 में यहाँ खुदाई की। उन्हें जले हुए बरतन, उन्नत जल निकासी प्रणाली और मानव हड्डियों के अवशेष मिले। इन सबने साबित किया कि महुआ डाबर एक विकसित और समृद्ध गाँव था, जिसे योजनाबद्ध तरीके से नष्ट किया गया।


डॉ. शाह आलम राना और महुआ डाबर संग्रहालय

महुआ डाबर के शहीदों के वंशज डॉ. शाह आलम राना ने 1999 में महुआ डाबर संग्रहालय की स्थापना की। उनका उद्देश्य इस भूले-बिसरे नरसंहार को जन-जन तक पहुँचाना और राष्ट्रीय मान्यता दिलाना है।


सरकार की उदासीनता और राष्ट्रीय मान्यता की कमी

2022 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इसे स्वतंत्रता संग्राम पर्यटन स्थल के रूप में मान्यता दी, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे अब तक राष्ट्रीय स्मारक नहीं बनाया है। ब्रिटिश सरकार से माफी की मांग भी नहीं की गई है, जबकि जालियांवाला बाग के लिए माफी मांगी गई थी।


महुआ डाबर की सीख और आज का सन्देश

महुआ डाबर की कहानी हमें सिखाती है कि इतिहास केवल वह नहीं है जो किताबों में लिखा जाता है, बल्कि वह भी है जो जनता की स्मृति में जीवित रहता है। स्वतंत्रता दिवस पर हमें न केवल प्रमुख शहीदों को, बल्कि उन अनगिनत गुमनाम बलिदानियों को भी याद करना चाहिए जिनकी कुर्बानी ने आज़ादी का मार्ग प्रशस्त किया।

हमारे चैनल पर जाने के लिए यहाँ क्लिक करे। ….

Khursheed Khan Raju

I am a passionate blogger. Having 10 years of dedicated blogging experience, Khurshid Khan Raju has been curating insightful content sourced from trusted platforms and websites.

Leave a Comment