सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है, जिसमें एक नाबालिग बच्ची को उसकी मां की जाति के आधार पर अनुसूचित जाति (SC) सर्टिफिकेट जारी करने की अनुमति दी गई है, भले ही उसके पिता का संबंध अनुसूचित जाति से न हो। यह निर्णय पारंपरिक नियमों को चुनौती देता है, जिनके तहत अब तक बच्चे की जाति पिता की जाति के आधार पर ही दी जाती थी। इस फैसले को लिंग-समानता, सामाजिक न्याय और जाति-पहचान के अधिकार के दृष्टिकोण से दूरगामी माना जा रहा है।

हाल ही में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक नाबालिग बच्ची के मामले में बड़ा फैसला सुनाया है, जिसमें उसने स्पष्ट किया कि जब बच्ची का पालन-पोषण और सामाजिक परिवेश उसकी मां के समुदाय में हुआ हो, तो उसे मां की जाति के आधार पर SC सर्टिफिकेट दिया जा सकता है, चाहे उसके पिता की जाति अनुसूचित जाति न क्यों न हो। इस दिशा में कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के पहले के आदेश को बरकरार रखा है, जिससे बच्ची को उसके मां की ‘आदि द्रविड़’ जाति के आधार पर प्रमाणपत्र जारी करने की मंज़ूरी मिली।
इस फैसले की तर्ज़ पर कहा गया है कि अगर बच्ची सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से SC समुदाय में पली-बढ़ी है और उसी समुदाय के सामाजिक विकट अनुभवों का सामना करती है, तो ऐसे में उसे वही पहचान दी जानी चाहिए जो वास्तव में उसके जीवन से जुड़ी है।
भारत में जाति पहचान का निर्धारण परंपरागत रूप से पितृसत्ता के आधार पर होता आया है। इसका मतलब यह रहा है कि बच्चे की जाति पिता की जाति के अनुरूप स्वीकार की जाती थी, खासकर जब पिता का समुदाय अनुसूचित जाति मान्यता प्राप्त हो। इस परंपरा के चलते बच्चों को समाज में मिलने वाले आरक्षण और भत्तों आदि का लाभ पिता की जाति पर ही तय किया जाता था।

लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने यह संकेत दिया है कि समय के बदलते सामाजिक ढांचे, बढ़ते अंतर-जातीय विवाहों और माता-पिता दोनों के बीच सामाजिक असमानताओं को समझते हुए यह नियम हमेशा सार्वभौमिक नहीं रह सकता। माँ की जाति को भी योग्य आधार के रूप में मानते हुए कोर्ट ने यह फैसला सुनाया है, जो समाज में बदलती संरचना और समान अधिकार की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।
3. फैली हुई याचिकाएं और नियमों की चुनौती
यह फैसला ऐसे समय में आया है जब सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही कई याचिकाएं दायर हैं, जो पारंपरिक नियम को चुनौती देती हैं। याचिकाएं यह सवाल उठाती हैं कि जब मां स्वयं अनुसूचित जाति समुदाय से आती है, तो पिता की जाति को कारण बनकर बच्चे को सामाजिक पहचान से वंचित क्यों रखा जाए?
इन याचिकाओं में यह भी तर्क दिया गया है कि सामाजिक वास्तविकताओं को देखते हुए न्यायालय को यह मानना चाहिए कि केवल पिता की जाति के आधार पर निर्णय लेना समकालीन अनुभवों और सामाजिक निष्कर्षों के अनुरूप नहीं है। यही विचार अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले में भी परिलक्षित होता है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने भी यह स्पष्ट किया है कि यह फैसला एक सीमित तथ्य-आधारित मामले पर दिया गया है और यह जरूरी नहीं कि यह हर मामले में स्वतः लागू होगा। भविष्य के मामलों में यह देखा जाएगा कि बच्चा किस समुदाय में बड़ा हुआ है, किन सामाजिक कठिनाइयों का सामना करता है और उसका सामाजिक पहचान का अनुभव कैसा रहा है — इसी आधार पर निर्णय लिया जायेगा।

यह फैसला सिर्फ पहचान तक सीमित नहीं है। अनुसूचित जाति के तहत प्रमाणपत्र मिलने पर छात्र आरक्षण, छात्रवृत्ति, शैक्षणिक अवसरों और रोजगार में लाभ प्राप्त कर सकता है। इसलिए यह सिर्फ एक सर्टिफिकेट का मामला नहीं है, बल्कि समाजिक न्याय और समान अवसरों के विस्तार का मामला भी है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारत के सामाजिक और कानूनी ढांचे में एक बड़ा मोड़ साबित हो सकता है। यह न केवल परंपरागत पितृसत्तात्मक नियमों पर सवाल उठाता है, बल्कि यह दर्शाता है कि कानून को सामाजिक वास्तविकताओं और समान अधिकार के सिद्धांतों के अनुरूप विकसित होना चाहिए। ऐसे में यह फैसला आने वाले समय में सामाजिक न्याय और पहचान से जुड़े मामलों पर आगे और प्रासंगिक बहस को प्रेरित करेगा।