उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में भाजपा की ओर से पीएम नरेंद्र मोदी, योगी आदित्यनाथ और अमित शाह समेत कई योद्धा उतर चुके हैं। वहीं मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी का अभियान अखिलेश यादव शुरू कर चुके हैं। चाचा शिवपाल यादव से गठजोड़ समेत कई फैसलों से अखिलेश ने अपनी मजबूत रणनीति का संकेत दिया है। लेकिन इसके विपरीत राज्य की पहली और एकमात्र दलित महिला मुख्यमंत्री मायावती कमजोर नजर आ रही हैं। अब तक न तो मायावती न प्रचार अभियान शुरू किया है और न ही किसी अहम मुद्दे को लेकर वह बीते 5 सालों में सड़क पर उतरी दिखी हैं। ऐसे में बसपा की चुनावी माया कितनी कारगर होगी, इस पर राजनीतिक जानकारों को भी संदेह है।
आरक्षित सीटों पर बसपा, सपा से आगे निकलती दिख रही भाजपा
खासतौर पर रिजर्व सीटों पर भी बसपा का बुरा हाल चिंता बढ़ाने वाला है। राज्य में 86 आरक्षित सीटें हैं, जिनमें से 84 सीटों पर दलित समुदायों को रिजर्वेशन है, जबकि 2 सीटें आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित हैं। आमतौर पर बसपा की इन सीटों पर मजबूत दावेदारी मानी जाती रही है, लेकिन भाजपा के उभार के बाद से गणित बदल गया है। 2017 के विधानसभा चुनाव में इन 86 सीटों में से 70 पर भाजपा जीती थी, जबकि 5 अन्य सीटें उसकी सहयोगी पार्टी रहीं अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के खाते में गई थीं। बसपा को सिधौली और लालगंज की दो ही सीटें मिल पाई थीं। शायद यही वजह है कि इन सीटों को लेकर रणनीति बनाने के लिए पिछले दिनों मायावती ने एक मीटिंग भी बुलााई थी। यहां तक कि सपा को भी SC आरक्षण वाली 7 सीटों पर जीत मिली थी।
भाजपा ने रिजर्व सीटों पर किया था कमाल
भाजपा ने आरक्षित सीटों पर कितनी बड़ी सफलता पाई थी, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 2012 में उसे सिर्फ 3 सीटें ही मिली थीं। यही नहीं चौंकाने वाली बात यह भी रही कि आधी रिजर्व सीटों पर बसपा दूसरे नंबर की पार्टी भी नहीं थी। पहली बार बसपा ने जब 1989 में चुनाव लड़ा था तो उसे 5 सीटें मिली थीं। इस तरह अपने चुनावी इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन बसपा ने किया था। इसके अलावा सपा भी 1991 के बाद अपने सबसे खराब प्रदर्शन से गुजरी। तब सपा को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी। बीते चुनाव के इन समीकरणों से साफ है कि यदि रिजर्व सीटों पर पिछली बार की तरह ही बसपा का प्रदर्शन रहा तो उसके लिए हालात चिंताजनक होंगे।