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कांग्रेस के साथ चलने की बजाय उसमें सेंध क्यों लगा रही हैं ममता, कैसे मिल रहा फायदा

 

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तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने इसी साल जुलाई के आखिर में दिल्ली में सोनिया गांधी के घर जाकर उनसे मुलाकात की थी और कहा था कि विपक्ष की एकता के लिए यह पॉजिटिव मीटिंग थी। इस मीटिंग में राहुल गांधी भी मौजूद थे और इसी विपक्षी एकता के लिए अहम माना जा रहा था। तब से अब तक 4 महीने ही बीते हैं, लेकिन बुधवार को दीदी की कांग्रेस से ममता खत्म होती दिखी। यही नहीं सोनिया से मुलाकात न करने के सवाल पर उन्होंने पूछा कि क्या संविधान में ऐसा लिखा है कि उनसे मिलना ही चाहिए। साफ है कि कांग्रेस के नेताओं को देश भर में तोड़ रहीं ममता बनर्जी के अब उनसे पहले जैसे रिश्ते नहीं हैं या वह रखना नहीं चाहतीं।

आइए जानते हैं, क्या है कांग्रेस के नेताओं को तोड़ने की टीएमसी की रणनीति…

राजनीतिक जानकारों की मानें तो टीएमसी की नेता ममता बनर्जी यह मानती हैं कि बंगाल में उन्होंने लगातार तीसरी बार जीत हासिल करके और भाजपा को सीधे मुकाबले में परास्त करके खुद को साबित किया है। ऐसे में वह अपनी इस उपलब्धि को देश भर में भुनाना चाहती हैं और राष्ट्रीय लीडर के तौर पर उभरना चाहती हैं। ऐसे वक्त में जब सीधे मुकाबले में ज्यादातर जगहों पर कांग्रेस को भाजपा से पराजय मिली है, तब टीएमसी खुद को कांग्रेस से बेहतर दिखाना चाहती हैं। यही वजह है कि वह उन राज्यों में खास फोकस कर रही हैं, जहां कांग्रेस का संगठन बेहद कमजोर है या फिर गुटबाजी की शिकार है।

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इसी रणनीति के तहत ममता बनर्जी ने बिहार से कीर्ति आजाद को पार्टी में शामिल किया है, जहां कांग्रेस बेहद कमजोर है और कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को शामिल कराके जान फूंकने की तैयारी में है। इसके अलावा हरियाणा में गुटबाजी के चलते पार्टी छोड़ने वाले अशोक तंवर को भी उन्होंने जगह दी है। मेघालय, गोवा, त्रिपुरा और असम जैसे राज्यों में तो टीएमसी मुख्य विपक्षी दल बनने की जुगत में है। ममता बनर्जी को इसमें उन इलाकों में मदद भी मिलती दिख रही है, जहां बांग्ला भाषी लोगों की संख्या अधिक है। असम और त्रिपुरा जैसे राज्य इनमें ही शामिल हैं। इसके अलावा बिहार के किशनगंज, अररिया जैसे इलाकों में भी टीएमसी को बढ़त की उम्मीद है, जो बंगाल से सटे हैं। इन इलाकों पर बंगाल की राजनीति का हमेशा से प्रभाव दिखा है और मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं।

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